बुधवार, 21 मई 2025

1215

 माहिया— रश्मि विभा त्रिपाठी

1
कुछ अब न तमन्ना है
प्यार तुम्हारा तो
ये हीरा- पन्ना है।
2
रूठे हो, क्या तुक है
देखो चाहत का
रिश्ता ये नाज़ुक है।
3
हो जाती हूँ गुम मैं
तेरे होठों के
इस शोख तबस्सुम में।
4
देती हूँ रोज तुझे
एक सदा- आजा
साँसों का दीप बुझे।
5
दिल में बस प्यार रखो
सबकी ख़ातिर तुम
कोई न ग़ुबार रखो।
6
जाने ये कौन बला
आज किसी का भी
कोई चाहे न भला।
7
हर पीर छिपाऊँगी
तेरी ख़ातिर मैं
हर पल मुस्काऊँगी।
8
चन्दा- सा प्यारा वो
क्यूँ किस्मत का फिर
रोशन न सितारा हो।
9
चन्दा की चमक तुम्हीं
फूलों की ख़ुशबू
तितली की दमक तुम्हीं।
10
वो हो मुझसे न ज़ुदा
अब पल भर को भी
कर इतना करम ख़ुदा।
-0-

शुक्रवार, 16 मई 2025

1214

 

2-हाइबन

सुदर्शन रत्नाकर

1-सूर्यास्त

 

साँझ के छह बजकर पैंतीस मिनट हुए है। गोवा में अरब सागर के सामने बैठकर लहरों को उठते गिरते देख रही हूँ

शाम की हल्की धूप ने उन पर सुनहरी लकीरें खींच दी हैं। दूर क्षितिज में थकामाँदा  सूरज  उसमें उतरने के लिए मचल रहा है। सागर के वक्ष पर आसमान में छाई नारंगी रंग की परछाई ऐसे लग रही है- मानो किसी कोमलांगी ने लहरों पर रंगोली  सजा दी हो। यह अद्भुत दृश्य मन को बाँधे जा रहा है। सूर्यास्त के एक-एक क्षण को कैमरे में उतार रही हूँ।

जैसे ही सागर ने सूरज को आग़ोश में लिया, निशा ने अपना साम्राज्य जमा लिया है। लहरों ने भी काली चादर ओढ़ ली है। सन्नाटा छाने लगा है।

थोड़ी देर में क्षितिज में सूरज के स्थान पर तारे सागर में उतरने के लिए उतावले हो रहे हैं तथा उनकी परछाई लहरों पर चमकते मोतियों का आभास दे रही है।

धीरे-धीरे टहलता हुआ चाँद भी लहरों के साथ अठखेलियाँ  करने आ पहुँचा है। सागर से आते शीतल हवा के झोंकों  का स्पर्श मन को भीतर तक आह्लादित कर रहा है। मैं तट पर आकर सागर में उतरने लगती हूँ

 फेनिल लहरें मुझे छूकर जब लौटती हैं, तो पाँवों के नीचे की रेत खिसकने लगती है। लग रहा है जैसे मैं भी लहरों के साथ सागर में  जा रही हूँ, सागर होने के लिए ।

अद्भुत दृश्य

होता जब सूर्यास्त

छूता है मन।

-0-

 

 

 

2-कोई नहीं समझता

 

मेरा नाम परसी है। पहले मैं अपनी माँ और बहन-भाइयों के साथ रहता था। हम सब बहुत छोटे थे फिर भी मिलकर खेलते थे। थक जाते, तो माँ की गोद में दुबक जाते और मज़े से दूध पीते थे। कुछ दिन के बाद मालिक माँ और हम सबको अपने शोरूम में ले गया। वहाँ जगह बहुत कम थी। हम खेल नहीं सकते थे। फिर भी माँ के साथ खुश थे।

लेकिन यह ख़ुशी अधिक समय तक नहीं रही। एक दिन एक व्यक्ति आया और पैसे देकर मेरे दो छोटे भाइयों  को ले गया। माँ उस दिन बड़ी उदास रही। हमें भी अच्छा नहीं लग रहा था। कुछ दिन बाद मेरी बहन को भी एक व्यक्ति ले गया। जब वह जा रही थी, तो मैंने माँ और उसकी आँखों में आँसू देखे थे। अब मैं अकेला रह गया था।माँ का दूध पीने का भी मन नहीं करता था। अकेला खेलने का  तो बिल्कुल ही  नहीं। माँ और मैं बस उदास से शोरूम में पड़े रहते। मैं कमज़ोर होता जा रहा था पर  खुश था कि कमज़ोर होने के कारण मुझे कोई भी नहीं ले जाएगा। मैं अपनी माँ के साथ रह सकूँगा। पर मेरी ख़ुशी पर तुषारापात हुआ जब मिकेयला नाम की एक लड़की शोरूम में आई। मेरी नीली आँखें उसे पसंद आ गईं। मालिक उस लड़की की मंशा को जान गया और उससे अधिक पैसे लेकर बेच दिया। जाते हुए मैंने माँ कीं आँखों में बहते आँसुओं को  देखा था।

   मैं  लड़की के साथ उसके घर में रहने लगा। वह मुझे गोद में लेकर  बहुत प्यार करती है। अपने कमरे में मेरे लिए बिस्तर लगा दिया है। पर वह मुझे अपने बिस्तर पर साथ सुलाती है, मुझे गोद में लेकर बहुत प्यार करती है। उसके प्यार के कारण मैं अपनी माँ को भी भूलने लगा हूँ।  धीरे-धीरे मुझे यहाँ रहना अच्छा लगने लगा है; पर  मालकिन सुबह खाना देकर घर से चली जाती हैं और शाम के लौटकर आती हैं। इतना समय मैं घर में अकेला इधर उधर घूमता रहता हूँ।अलमारी पर चढ़ता हूँ, खिड़की के परदे के पीछे बैठकर नीचे देखता हूँ, तो मेरा मन भी घूमने को करता है; पर जा नहीं सकता। पॉटी-सू सू भी मशीन में ही करता हूँ। लड़की जो अब मुझे माँ जैसी लगती है। अपनी सहेली के साथ  कभी -कभी बाहर ले जाती है, तो पिंजरे जैसे बैग में डालकर पीठ पर उठा लेती है। बस बाहर की हवा थोड़ी खा लेता हूँ। खुले में घूमने की इच्छा मन में ही रह जाती है। लड़की की सहेली मुझे बिलकुल पसंद नहीं है। मुझे मेरे नाम से नहीं, बिल्ला कहकर बुलाती है; पर जब दादी आती हैं, तो मुझे बहुत अच्छा लगता है। वह सारा दिन घर में रहती हैं और गोद में उठाकर घूमती भी हैं। जब वह चली जाती हैं तो फिर से मेरी दिनचर्या वही हो जाती है। अकेलापन बड़ा अखरता है। तब सबकी बहुत याद आती है। मैं बोल नहीं सकता और मेरी भावनाओं को कोई समझता नहीं। किसे बताऊँ कि प्यार मिलने पर भी यह क़ैद, यह अकेलापन सहन नहीं होता।

 दुनिया स्वार्थी

 नहीं है समझती

बेज़ुबानों को॥

-0-

सुदर्शन रत्नाकर-ई29,नेहरू ग्राउंड, फ़रीदाबाद 121001

मोबाइल न. 9811251135

मंगलवार, 22 अप्रैल 2025

1213-माहिया

 

रश्मि विभा त्रिपाठी

 


1
जिसको दिल सौंपा था
उसने सीने में
खंजर ही घोंपा था।
2
हर पल ही ख़्याल किया
बनके संग चले
तुम मेरी ढाल पिया।
3
बाहों का हार मुझे
तुम पहनाकरके
दे दो निस्तार मुझे।
4
नयनों में पीर दिखी
आकुल अधर हुए
कैसी तकदीर लिखी।
5
तुमको छूके आई
पुरवाई तेरी
ख़ुशबू लेके आई।
6
जब भी है मुरझाता
तेरी ख़ुशबू से
मन फिर से खिल जाता।
7
बेशक मज़बूर रही
मैं हूँ दूर भले
दिल से ना दूर रही।
8
हर आस अधूरी है
सात समंदर की
तुमसे जो दूरी है।
9
तुम सपनों में मिलते
मन के मरु में प्रिय
पाटल सौ सौ खिलते।
10
बस ये अहसान करो
अपनी पीर सभी
तुम मुझको दान करो।
—0—

मंगलवार, 4 मार्च 2025

1212

 

हाइबन

1. हवा में घुली धुन/ अनिता मंडा

 


खुली खिड़कियों से वह बाँसुरी की धुन अबाध घर में चली आती। अक्सर कोई पुराना फ़िल्मी गीत वह बाँसुरी पर बजा रहा होता। 'ओ फ़िरकी वाली, तू कल फिर आना....',  आ जा तुझको पुकारे मेरा प्यार...',  'सौ साल पहले हमें तुमसे...' उसके जाने के बाद भी धुन हवा में घुली रहती। 

 

हर बृहस्पतिवार की सुबह वह इस ब्लॉक से निकलता। शायद हर वार के लिए अलग-अलग मुहल्ले तय कर रखे थे। एक लंबा- सा बाँ का डंडा और उस पर बँधी हुई अलग-अलग आकार की बाँसुरिया। पर हमारे मुहल्ले में कोई बच्चा घर से बाहर ही नहीं निकलता , जो बाँसुरी खरीदने की जिद्द करे। 

 

वह अक्सर जैसे सड़क पर घुसता वैसे ही निकल जाता। कोई भी बाँसुरी खरीदने बाहर न निकलता। 

मेरे आस-पास कोई भी नहीं जिसे बाँसुरी बजानी आती हो। संगीत में कितना सुकून है , फिर भी हमारे जीवन में कितना कम संगीत बचा है। आसपास कई संस्थान हैं , जो बच्चों को गिटार, ड्रम, की-बोर्ड आदि सिखाते हैं ; लेकिन उस बाँसुरी-वादक जैसी बाँसुरी मैंने वहाँ भी नहीं सुनी। 

 

क्या पता उसे भी कोई अच्छा प्लेटफॉर्म मिले , तो वह भी अपने हुनर को संसार के सामने ला सके। उसे देख निदा फ़ाजली साहब की पंक्ति याद आ जाती है- 'कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता'  

दुनिया का कारोबार अपने हिसाब से चलता रहता है। अनजाने ही कुछ धुनें मौसम बदल जाती हैं। 

हवा में घुली

बाँसुरिया की धुनें

मन को धुनें।

-0-

2-सेमल

 


      सेमल को देकर 'सैन भगत' की एक पंक्ति हठा्त् होठों पर चली आती है- 'यो संसार फूल सेमर को, बूर-बूर उड़ जावे।'

मार्च महीने में दिल्ली के पार्क और सड़कों पर सेमल ख़ूब जलवे बिखेरता है।

साल भर हरा-भरा रहने वाला सेमल मार्च का महीना आते आते पर्ण-विहीन होने लगता है। सीधा तना और गर्व से आसमान को छूने की कोशिश में सेमल जिस ठाठ बढ़ता है, अद्भुत है।

   सर्दियों में साथ रही, बुढ़ाई पत्तियाँ एक-एक कर अनवरत झरती जाती हैं, मानों शीत के बीतने पर पुराने वस्त्र बदले जा रहे हों। ज़र्द पत्तियों की जगह लेने को आतुर लाल-लाल हठीले फूल तुनक कर रिक्त शाखों को भर देते हैं। पर्ण-विहीन सेमल मानों होली के स्वागत में लाल गुलाल अपनी काया पर लपेट लेता है। 

   फिर कुछ समय बाद चटकीला लाल भी बूँद-बूँद कर बिखरने लगता है। अप्रैल जाते- जाते फल भी रेशा-रेशा हो कर हवाओं का दामन थाम यहाँ-वहाँ उड़ जाता है। फिर से शाखों पर पत्तियाँ आ जाती हैं। 

योगी सेमल

दुःख-सुख में थिर

प्रार्थनारत।

-0-

 3.बेचैनी का सुकून/ अनिता मंडा

 फरवरी में खिलते फूल जहाँ मन को लुभाते हैं, हवाओं में सौरभ घुली होती है, भँवरे तितलियाँ पराग पीकर अघा नशे में झूमते से उड़ते हैं; वातावरण मन को लुभाता है; लेकिन मार्च की शुरुआत होते होते हवाएँ थोड़ी रूखी होने लगती है। फागुन में एक नशा होता है। बीतता फागुन अपने पीछे अजीब सी उदासियाँ बिखेर देता है। 

 हवाएँ बेबात पेड़ों से उलझती हैं। पीत- पर्ण सहजता से उनके साथ चल पड़ते हैं। जैसे मोह के सारे बन्धन तोड़ दिए हों। आश्चर्यजनक रूप से पत्तियाँ एक के पीछे एक बेआवाज़ गिरती जाती हैं। न पीछे मुड़क देखना, न कुछ साथ लेना। एक अजीब फकीराना चाल कि अब न मुड़के देखने वाले हम। 

 ठीक ठीक नहीं पता कि सुकून है या बेचैनी।  यह पतझड़ लुभाता है या एक खालीपन मन पर तारी होता जाता है। झरती पत्तियों से खाली होती शाखाएँ। ऐसा भी क्या निर्मोह। मन की दशा बार-बार बदलती है। स्थिर तो कुछ भी नहीं। हवा का जाने क्या खो गया है कि पत्तियों को उलट-पलटकर ढूँढती है। जैसे कुछ रखकर भूल गई हो। वो जो भूल गई है नए रंग; वो कुछ दिनों में शाखाओं पर फूटेंगे।

बौराई हवा

क्या तो जाने ढूँढती

पात हिलाती।

-0-

सोमवार, 3 मार्च 2025

1211-हाइबन

 

1-नदी का दर्द / डॉ. सुरंगमा यादव

 


दरीनाथ धाम के लिए हम सब बदायूँ से सुबह सात बजे निजी वाहन से निकले। हल्द्वानी तक तो पहाड़ी और मैदानी रास्तों में अधिक अंतर पता न चला; परन्तु उसके बाद हम जैसे -जैसे ऊपर चढ़ते गए, पहाड़ काटकर बनाये ग गोल घुमावदार रास्ते रोमांच मिश्रित भय की अनुभूति कराने लगे। जब गाड़ी ओवरटेक होती, तो नीचे गहरी खा देखकर जान ही सूख जाती। पहाड़ों से बहते हुए झरने दुग्ध की धवल धार से प्रतीत हो रहे थे। मन में सहसा प्रश्न  उठा, अपने  अंतस्तल से निर्मल,शीतल, शुद्ध जलधार प्रवाहित करने वाले पहाड़ों को कठोर क्यों कहते हैं?दूर तक फैले ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों पर बहते हुए झरनों की पतली धार आँसुओं की सूखी रेखा-सी  प्रतीत हो रहे थे। शायद अपनी ऊँचाई  के कारण एकाकी पहाड़ स्वयं को ही अपना सुख-दुःख सुनाकर हँसते-रोते रहते हैं।  जागेश्वर जी पहुँचते- पहुँचते अँधेरा हो गया। ड्राइवर ने रात्रि में आगे चलने से मना किया, तो हम लोग रात्रि विश्राम के लिए वहीं रुक ग। प्रातः हमने अपनी यात्रा पुनः शुरू की।  दोपहर होते- होते हम उत्तराखंड के चमोली जनपद में अलकनंदा नदी के तट पर स्थित बदरीनाथ धाम पहुँच ग। अलकनंदा  का जल हल्का हरा रंग लिये हुए इतनी तीव्र गर्जना  और वेग के साथ बह रहा था, मानो पहाड़ रूपी पिता के घर से विदा लेते समय मन में भावनाओं  का रेला उमड़ पड़ा हो। जल इतना निर्मल कि उसमें पड़े हुए पत्थर भी साफ नजर आ रहे थे। यही पहाड़ी नदियाँ सागर से मिलने की आतुरता में अपने मैदानी सफर में कितनी मलिन हो जाती हैं!

सागर दूर

मैदानों संग नदी

हुई बेनूर।

-0-

2- लहरें / डॉ. सुरंगमा यादव

 अत्यंत सौभाग्य से हमें ओडिशा राज्य के तटवर्ती शहर  पुरी में स्थित श्री जगन्नाथ जी के दर्शन हुए।  जब हम पुरी पहुँचे, तो शाम हो चुकी थी।  हम लोग होटल तलाशने लगे। समुद्र तट के पास वाले होटल  तथा समुद्र से कुछ दूरी पर स्थित होटल के दाम में अंतर था। हमने ऐसी जगह कमरा लिया, जहाँ से समुद्र दिखा दे। सामान कमरे पर छोड़कर हम पुरी घूमने निकल पड़ेभूख भी जोरों की लगी थी। शाकाहारी भोजनालय तलाशने हमें काफी मेहनत करनी पड़ी,तब जाकर मारवाड़ी भोजनालय मिला। खाना खाकर टहलते हुए हम लोग समुद्र तट की ओर चले ग। बहुत हल्की रोशनी ,दिन की अपेक्षा अधिक गर्जना के साथ ऊँची उठतीं लहरें, पलक झपकते ही हमें छूकर लौट जातीं और मन में भय-सा भी उत्पन्न कर देतीं।  कमरे पर भी समुद्र की घनघोर गर्जना सिहरन पैदा कर रही थी। अगले दिन सुबह-सुबह ही हम लोग समुद्र तट पर पहुँच ग। अद्भुत नजारा था। अलग ही आनंद आता  था जब सर्प की तरह रेंगती लहरें वेग के साथ ऊपर उठकर हमें  नहलाकर फिर वापस आने के लिए चली जातींलहरों की तीव्रता से पाँव के नीचे से रेत  सरकने से हम लड़खड़ा जाते।

समुद्र  तट पर वेग से आती ऊँची-ऊँची लहरें अपने साथ सीप,घोंघे,छोटे-छोटे पत्थर आदि लेकर आतीं,तो दूसरी ओर रेत पर उकेरे ग पूर्ण-अपूर्ण स्वप्नों, भावनाओं और घरौंदों को बड़ी बेरहमी से समेट ले जातीं और मानों कहती जातीं -जीवन का अस्तित्व ही यही है-

समुद्र- तट

स्वप्न घरौंदे देख

लहरें हँसें।

-0-

3- आस्था / डॉ. सुरंगमा यादव

 भगवान कृष्ण की लीला स्थली मथुरा में स्थित निधि वन, गोवर्धन पर्वत, ब्रज भूमि तथा यमुना को देखने की इच्छा लंबे समय से मन में थी। सच्चे मन की अभिलाषा राधा-कृष्ण की कृपा से जल्दी ही पूरी हुई।  हम लोग सपरिवार मथुरा पहुँचे। मथुरा जाएँ और गोवर्धन पर्वत  की परिक्रमा न करें ऐसा कैसे हो सकता!हम गोवर्धन जी  की परिक्रमा के लिए चल पड़े। यह परिक्रमा पाद  परिक्रमा, दण्डवत् परिक्रमा सहित कई प्रकार  से की जाती है। दोपहर के समय धूप बहुत तेज होने के कारण हम यह परिक्रमा गाड़ी से ही करने लगे। कई मंदिरों, कुण्डों तथा वृक्ष वाटिकाओं से सुसज्जित गोवर्धन परिक्रमा मार्ग सात कोस या लगभग 21 कि. मी. का  है।  गोवर्धन परिक्रमा मार्ग में एक स्थान पर हजारों की संख्या में लाल पत्थरों से बने खिलौनेनुमा  छोटे-छोटे प्रतीकात्मक घर देखकर हम आश्चर्य में पड़ ग। कुछ श्रद्धालु हमारे सामने भी पत्थरों से घर की आकृति बना रहे थे। इतनी बड़ी संख्या में छोटे-छोटे घर देखकर लग रहा था, मानो कोई सघन बस्ती हो। घर भी अलग-अलग ऊँचाई के थे। कोई घर केवल सिर पर छत की कामना से बना था, तो कोई एक मंजिल, कोई दो-तीन मंजिल का भी था। पूछने पर पता चला कि यहा मान्यता है कि जो लोग यहाँ इस तरह अपने सपनों का घर बनाकर मन्नत माँगक जाते हैं, उनका घर जल्दी ही बन जाता है। सचमुच आस्थाएँ भी कितनी बड़ी होती हैं। अपनी इच्छाएँ,दुःख-तकलीफ सब कुछ ईश्वर से कहकर मन हल्का कर लेती हैं।

मन की बात

पत्थर में देवता

उठते जाग 

-0-

4-चिल्का की झील- उड़ीसा का प्राकृतिक सौंदर्य /  अंजू निगम

 


उड़ीसा के चंद्रभागा तट से टकराती समुद्र की उत्कट लहरें। कतार में लगे, हवा के साथ दौड़ लगाते नारियल के विशालकाय वृक्ष। इन वृक्षों के समानांतर चलती सीधी-सपाट सड़क, चिल्का झील तक पहुँचती है। चिल्का का विहंगम दृश्य मन को सम्मोहित कर गया। सैलानियों का जमावड़ा और जल- क्रीड़ा करते प्रवासी पक्षी। ईश्वर ने मानो किसी कुशल चितेरे- सा प्रकृति को अनंत तक कैद कर रखा हो। दूर तक फैला जल- क्षेत्र और क्षितिज से मानो होड़ करता, धुँधला- सा नजर आता एशिया का सबसे बड़ा लैगून।

लैगून देखने की उत्सुकता लगभग हर सैलानी को थी। हम भी इतनी दूर लैगून को पास से देखने की इच्छा लेकर ही आ थे। नीली, साफ, स्वच्छ चिल्का झील और  समुद्र के पानी का खारापन आपस में मिल, जीवन का एक सुदंर संदेश दे रहे थे। मीठा और खारा भी आपसी सामंजस्य स्थापित कर एक- दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार कर, साथ साथ प्रवाहित हो रहे थे।

चिल्का की झील

प्रवासी पक्षियों को

देती आश्रय

-0-

रविवार, 2 मार्च 2025

1210

हाइबन / कृष्णा वर्मा

स्नोफॉल (कनाडा) 

कनाडा की लम्बी सर्दी में दिसम्बर माह से और कभी-कभी तो नवम्बर माह से ही स्वभाविक रूप से बर्फ़ गिरने लगती है। कमरे की खिड़की से बर्फ़ के नर्म फाहों को गिरता देखकर मन खुशी से गुदगुदा जाता है। कई बार अपनी बालकनी में खड़े हो कर इन मखमली फुहारों का नन्द लिया है। प्रकृति भी क्या चीज़ है जो बिना कुछ कहे ईश्वर के कितना क़रीब कर देती है। सर्दी के मौसम में यह आए दिन का मामूल है थोड़ी देर बर्फ़ पड़ती है, बादलों की ओट से जैसे ही सूरज झाँकता है, पानी-पानी होकर बर्फ़ धरती में समा जाती है। जिस दिन जमकर पड़ती है, उस दिन धरती का चप्पा-चप्पा दूधिया सफ़ेद मोटी परत से जाता है। चाँदी- सी चमकती रातें, पेड़ों की नाज़ुक टहनियों पर, डालों की पीठ पर, पत्तों की हथेलियों पर जमी बर्फ़, छत्तों और छज्जों पर लटकती बर्फ़ की झालरें देखकर किसी और ही लोक की प्रतीति होती है। कितना अनूठा दृश्य होता है,  जब सूरज की किरणें पड़ते ही चारों ओर हीरे की कणियों सा दमक उठता है ! ऐसा लगता है- जैसे धरती पर स्वर्ग उतर आया हो। बच्चों की खुशी का तो ठिकाना नहीं रहता। स्नोसूट, बूट, हैट, दस्ताने पहनकर कड़कती ठंड में बर्फ़ से खेलना उन्हें बहुत भाता है। हाथ- मुँह भले लाल सुर्ख़ हो जाएँ,  पर बर्फ़ के गोले बनाकर खेलना, घर, पुतले और टॉवर बनाने का नन्द उठाने से नहीं चूकते। पिछले सप्ताह तो हद ही हो गई। जाने बादलों ने किससे ज़िद  ठान ली थी। ऐसी तूफ़ानी बर्फ़बारी हुई कि हफ़्ता भर थमने का नाम ही नहीं लिया। बर्फ़ से अँटे रास्ते रुक गए, गाड़ियाँ पूरी तरह से ढक गईं और जाम हो गईं, स्कूल कॉलेज बंद हो गए। सड़कों पर यातायात अवरुद्ध हुआ। फिसलन से कितनी ही दुर्घटनाएँ हुईं। कुछ घरों के तो वेंट तक बंद हो गए। हीटिंग बेअसर हो गई। आँगनों से बर्फ़ हटाते- हटाते लोगों की कमरें दोहरी हो गईं। मेरे घर की बालनी में भी इतनी ऊँची बर्फ़ थी कि आधे- आधे दरवाज़े गए थे। क़ुदरत के खेल भी निराले हैं, क्या भरोसा कब क्या कर दे, कैसा खेल दिखा दे। इंसानों की तरह प्रकृति के भी कई रूप होते हैं। जितने ख़ूबसूरत, उतने ख़तरनाक भी।       

1

हिम के झारे 

रजत धरा पर 

स्वर्ग नज़ारे।  

2

प्रकृति खेल 

जाने कब रोक दे 

जीवन रेल। 

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