गुरुवार, 5 अक्तूबर 2017

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विश्वास  -एक स्मृति जर्मन प्रवास की
कमला घटाऔरा 

शादी के बाद अपना देश छोड़ विदेश की धरती पर कदम रखते ही लगा मैं किसी अजनबी दुनिया में आ गई हूँ । किसी जादूनगरी में । बडे बडे कई मंजिले घर । साफ सुथरी सड़कें । विभिन्न भाषा भाषी लोग अलग पहरावे अलग खान पान । उन का बोला हुआ एक भी शब्द समझ  से परे । मैं यहाँ कैसे रहूँगी ? मन विचित्र से ख्यालो में खोया रहता ।पति के काम पर जाने के बाद स्टूडियो फ्लैट के बंद कमरे में खिड़की के पास खड़ी होकर आते जाते लोगों को देखा करती । न कोई अड़ोसी-पड़ोसी , न कोई मिलने जुलने वाला रिश्तेदार । उस तीन मंजिली विल्डिंग में  सब जैसे अपने अपने पिंजरें में बंद रहते । वहाँ कौन कौन रहता है ,किसी को किसी की शक्ल से भी परिचय नहीं था ।

जादूगर द्वारा ले जाकर पिंजरे में बंद  रखी राजकुमारी की कहानी स्मरण हो आई । बाहर विदेश में अकेला रहता व्यक्ति विवाह कर लाई दुलहन के लिए उस जादूगर से कम नहीं लगता । उसके काम पर जाने के बाद दुल्हन के लिए बंद कमरा पिंजरे जैसा ही लगता है ।
हफ्ते में एक बार जब शॉपिंग के लिए हम बाहर जाते तो लोगों की भीड़  में  मेरी आँखें अपने देश के लोगों को तलाशती ।कोई भी ऐसा चेहरा नजर न आता जो भारतवासी हो या पंजाब से हो । जब कि कहा यह जाता है ऐसा कोई भी देश नहीं यहाँ पंजाबी न पहुँचे हों । मुझे यह बात अविश्वसनीय लगती । 80 के दशक में मुझे यहाँ जर्मन में तो कोई  भी पंजाबी नजर  नहीं आया । वहाँ का कार्निवाल भी देखा । लोगों के उस समुद्र में भी कोई पगड़ीधारी नहीं दिखा । रेगिस्तान में बिना जल के सफर करने वाली हालत में लगा मैं तो यहाँ प्यासी ही मर जाऊँगी , बोलना ही भूल जाऊँगी । टीवी चलता रहता मगर एक भी बात समझ न आती । वहाँ की डच भाषा की  गिनती और कुछ कामचलाऊ  शब्द  अवश्य सीख लिये थे । दिन जैसे  तैसे कटते रहे ।
फिर जब अपनी प्रेगनेंसी के दौरान  हस्पताल जाना हुआ तो वहाँ एक दिल्ली की महिला मिली ।हैलो- हाय के बाद बातचीत शुरू हुई । पता चला वह मेरे घर के समीप ही कहीं रहती है वहाँ । परिचय के साथ आना जाना भी शुरू हुआ ।उसके पास उस की बहन घूमने आई हुई थी ।कभी कभी मेरे पास आ जाती । उससे बातें करके लगता मैं परदेस में नहीं अपने ही देश में हूँ । बातें कर के मन खुश हो जाता । उदासी गायब हो जाती ।
हम जब किसी से जान पहचान बना लेते हैं तो किसी काम की मदद  लेने का हक भी समझ लेते हैं ।अचानक उनसे बिना पूछे ऐसा काम उन पर डाल देते हैं  कि वह न 'हाँ' कर सके और न 'ना' कर सके । उन्हे बेबी बर्थ के बाद वापस चले जाना था । सिर्फ दो साल के वर्किंग बीजा पर आए थे वे लोग । महिला की बहन कुछ दिन पहले घूमने आई थी । एक दिन बहन अपने सामान का एक अटैची लेकर मेरे द्वार  पर आ खड़ी ,"बोली हम जा रहें हैं वापस । यह सामान आज नहीं जा पा रहा । मैं कल आ कर ले जाऊँगी ।" वह बहुत जल्दी में थी । मैं हाँ-ना करूँ  , कुछ पूछूँ इस से पहले ही  वह दन दनाती लौट गई ।
मैं डर गई । यह क्या मुसीबत अपने गले डाल ली । पति से बिना पूछे । अपनी भाषा में बोलने वाले से परिचय करने की ,उसके घर आने जाने की मुझे कहीं कोई भारी कीमत न चुकानी पड़ जाए । पति के आने पर कुछ बताती उन्होने पहले ही प्रश्न की गोली दाग दी द्वार के पास पड़ा अटैची देख कर ,'यह क्या है?'
बताने पर उनका पारा चढ़ने ही वाला था कि तभी डोर बेल हुई । कोई द्वार पर था ।
वहाँ की पुलिस किसी इल्लीगल व्यक्ति की तलाश में सब से पूछताछ कर रही थी ।  हमारे यहाँ भी जरूरी पूछताछ करने आई । कुछ प्रश्न पूछे ,हमारे पास पोर्ट देखे और चली गई । पति द्वारा मुझसे जो पूछताछ होनी थी उसका मेरे पास कोई उत्तर नहीं था । मैं गाँव जैसे माहौल में पली बाहर की दुनिया के बारे में अनभिज्ञ ,कुछ भी नहीं जानती थी कि किसी के काम के लिए 'हाँ' कहना खतरे का सबब भी बन सकता है । सरल स्वाभाव के कारण  विश्वास कर लिया था वह कल अपना सामान ले जाएगी । कहा है तो क्यों नहीं आएगी ?
"तुम्हारे पास क्या गारंटी है वह आकर सामान ले जाएगी ? पति की शंका ने मुझे फिर चिन्ता में डाल दिया । न जाने अटैची में क्या हो ? कुछ चोरी का सामान या स्मगलिन्ग  का सामान या कोई असला हत्थियार हुआ , तो  हम तो पकडे जाएँगें  ना ?"
 ( उन की बात आज के वक्त के बारे में तो सोलह आने सही थी । अटैची में कुछ भी हो सकता था । )
मैं खामोश  रह कर सुबह का इन्तजार करने लगी ।मन में सोच रही थी अगर हम किसी पर भी विश्वास न करे तो यह दुनिया तो अजनबियों का जंगल बन जाए इन्सानियत ही खतम हो जाए । किसी की भी कोई मदद करने को आगे न आए । हमें भी मजबूरी के वक्त किसी की मदद की  जरूरत पड़ सकती है ।जहाज में , बस या  ट्रेन में हम एक विश्वास पर ही चढ़ते हैं कि वह हमें हमारी मंजिल तक पहुँचा देगी । वहाँ अविश्वास क्यों नहीं ? उसने अपने देश का समझ कुछ  घंटो के लिए अपने सामान के लिए  जगह  ही चाही है तो  क्या हम अपने देशवासी के लिये इतना भी नहीं कर सकते । यह बात गुस्से से भरे पति को तो मैं समझा नहीं सकती थी । मन को बतिया कर प्रभु पर सब छोड़ सो गई । सुबह के इन्तजार में । पति को कैसे कह पाती अगर उसने सामान नहीं ले जाना होता तो वहीं अपने फ्लैट में फेंक सकती थी । मैं जानती थी कुछ कहने पर प्रश्नों के चक्रव्यूह में घिर जाऊँगी । इसलिए एक चुप  सौ सुख में भला समझ चुप रही । सुबह पति के काम पर जाने के बाद मेरे कान जैसे द्वार से चिपक गए। अपने कहे अनुसार वह अटैची लेने आई ,तो जान में जान आई । वह अटैची के साथ जो चिन्ता और शंकाओं का अँधेरा लाई थी अपनी धन्यवादी मुस्कान के पल्लू में समेट कर ले गई । घर जैसे अशुभ की चिन्ताओं से मुक्त हो गया । विश्वास ने लाज रख ली ।


विश्वास आगे

हारे  शंका अँधेरा
शुभ्र सवेरा ।

4 टिप्‍पणियां:

pushpendra dwivedi ने कहा…

अविस्मरणीय अतिरोचक भावनात्मक रचनात्मक अभिव्यक्ति

ज्योति-कलश ने कहा…

सरल मन की सुन्दर अभिव्यक्ति !
हार्दिक बधाई !!

Unknown ने कहा…

beautiful

Jyotsana pradeep ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना साथ ही भावपूर्ण भी ..बहुत बहुत बधाई आपको कमला जी !