शनिवार, 29 अक्तूबर 2016

739



1-ताँका
1-कृष्णा वर्मा
1
दीपों के सर
रोशनी का सेहरा
सहा ना जाए
गली नुक्कड़ मोड़
अमा धरे पहरा।
2
मल के गेरू
खड़िया के कटोरे
थे इतराए
आधी डूबी तेल में
वर्तिका भी नहाए
3
तोर सजे
चौखटें इतराईं
झूलीं कंदीलें
बाहें धर द्वार की
खुशियाँ मुस्कुराईं ।
4
ये नन्हे दीप
कुम्हार कलाकारी
गुम अँधेरा
प्रदीप्त वर्तिकाएँ
अमावस पे भारी।
5
उजली बाती
कोरे माटी के दीप
तन जलाएँ
उजाले की ख़ातिर
हँस पीड़ा पी जाएँ
6
सुबके रात
अमावस ने मेरा
चाँद लुकाया
जलाके तन लौ ने
रजनी को हर्षाया।
7
तम को भींचा
जलकर बाती ने
उजाला सींचा
अमावस घनेरी
दीप बना प्रहरी।
8
दीप संदेश
भेद गिले शिकवे
मन के क्लेश
रूठों को मनाकर
बना संबंध श्रेष्ठ।
9
जलाएँ दीप
रोशन हो संसार
हँसी-खुशी की
रंगोली से रंग दो
घर-आँगन द्वार।
-0-
2-सेदोका -डॉ सरस्वती माथुर
1
तमस मिटा
जगमग लौ जब
चंद्रमा- सी चमकी
दीपमालाएँ
देहरी द्वार पर
चाँदनी सी दमकी ।
2.
अखंड है लौ
आशा के दीप को भी
जला कर रखना
मन द्वारे को
अमावस्या हर के
रोशनी से भरना।
3.
देहरी -द्वारे
टँगे बंदनवार
झिलमिल लड़ियाँ
काली रातों में
करती उजियार
मनभावन त्यौहार ।
4.
दीपों की आभा
झिलमिल करती
तिमिर हटा कर ,
निशा की माँग
मावस की रात में
रोशनी से भरती।
5.
अन्तर्मन  को
दीपक तुम जल
ज्योतिर्मय करना
प्रेम -प्रीत से
जीवन- पथ में भी
सतरंग भरना।
6
दीप- सा मन
झिलमिल करता
अमृत- सा  झरता
तम  पी कर
चाँद- चाँदनी संग
अमावस  हरता  l
-0-
3-माहिया- डाँ सरस्वती माथुर
1
हर रात दिवाली है
जगमग आँगन की
कुछ बात निराली है।
2
हम तुम आन मिले
मन की चौखट पर
हैं जगमग दीप जले।
3.
अब रोज़  उजाला है
मन के आँगन में
दीपक इक बाला है ।
4
दीपों की हैं लड़ियाँ
मन हो रोशन तो
जलती हैं फुलझड़ियाँ
5.
दीपों का मेला है
काली रातों में
मन बहुत अकेला है ।
6
पथ पर एक दीप धरा
चली हवाएँ तो
नैनो में नीर भरा ।
7
काली है ये  रैना
जब वो आएँगे
तब आएगा चैना ।।
-0-

बुधवार, 26 अक्तूबर 2016

738



कमला घटाऔरा
जिज्ञासु


कैसे जन्मते ही बच्चा भूख लगने पर रोना शुरू कर देता है । धीरे धीरे बड़ा होने पर वह  करवट लेना ,घुटने के बल चलना और और खड़ा होना सीख लेता है । उसका जिज्ञासु मन फिर धीरे धीरे अन्य चीजों को उठाकर हिला कर देखता है । हिलाता है ,छनकाता है । ध्वनि से परिचित होता है । ...कुदरत ना जाने कितने गुणो से सजा कर प्राणी को पृथ्वी पर भेजती है हमें हैरान करने वाले , पर हम अपने में व्यस्त उस ओर कभी ध्यान ही नहीं देते । इसी तरह बच्चों की दुनिया भी हैरान करने वाले कामों से भरी होती है । जब वह इधर आता है तो यही सब करता है । कभी इस कमरे से उस कमरे में जाता है ।अब उसे पैर लग ग हैं ।वह भागता है  दौड़ता है , कभी  रसोई की अलमारियाँ खोलकर एक एक शीशी निकालता है । मुझे लाकर देता है । फिर वहीं रख देता है । कारपेट पर सिलाई करते समय नीचे गिरा धागा भी उठाकर मेरे हाथ में धर देता है । हफ्ते बाद जब भी उसे आना होता है । उस की पहुँच में आने वाली नुकसानदेह एक एक चीज उठा कर ऊँची जगह रखनी पड़ती है । उसकी तेज निगाह और कुछ शरारती वृत्ति सब कुछ देखना परखना चाहती है । मेरा आईपैड तो पहले तलाश करता है ।मेरी उंगली पकड़ कर कहने लगा है आईपै'(ड) । इसबार आया तो बेड के साथ रखी छोटी अलमारी का दराज़ खोलिकर टेबुल पर रखने वाली छोटी घड़ी निकाल ली , जिसके साथ लगा ढक्कन खोल दो तो स्टैंड का काम भी करता है । वह घड़ी को खोलने बंद करने लगा । मैं पास बैठी उसकी नन्हीं -नन्हीं उंगलियों के करतब देख रहीं थी । मैंने उसका ध्यान बँटाकर घड़ी छुपा दी । वह अब रेडियो का  स्विच ऑन -ऑफ करने लगा । मैं पीछे भागती तो फिर कुछ उठा लेता । टीवी का रिमोट  उठा लेता । उधर से हटाती तो लैंड लाइन का बटन दबा कर मैसेज सुनने लगता । जैसे जैसे बच्चा बड़ा होता है शायद इसी तरह उसकी शरारतें बढने  लगती हैं  या फिर यह गुण सिर्फ लड़कों में ही अधिक होता है ; क्योंकि मैंने अपनी बेटियों में यह गुण नहीं देखा । ना बिना पूछे उन्हें किसी के घर जाकर किसी चीज़को छूने की अनुमति दी । यहाँ तक कि मैंने भी अब नई चीज़ें घर में आने पर ,जैसे डीजिटल टीवी , लैप टॉप ,आई पैड या डिज़िटल रेडियो आदि सब पूछ समझकर ही  हाथ लगाया ,चलाना सीखा । लेकिन यह नन्हा मुन्ना है कि जैसे सब सीख कर ही धरा पर आया है ।...

बात उस छोटी सी घड़ी की कर रही थी । उस के जाने के बाद मैंने उसे खोल कर टेबुल पर रखना चाहा;  लेकिन मुझ से खुल ही नहीं रही थी । पता नहीं वह कैसे खोल -बंद कर रहा था । उंगली बीच में आने पर आसानी से निकाल लेता था । मैंने काफी कोशिश की पर खुली ही नहीं । न मेरे हाथो के स्पर्श को वह खोलने वाला कट मिला ना आँखों को । हार मानकर मैंने पति के हाथों में थमा दिया खोलने के लि । नन्हीं उंगलियो की उस कला को समझने के लिये मुझे आँखें लगानी पड़ी । ऐनक लगा कर देखा तो वह आधे सेंटी मीटर जितना ढकन का कट दिखा । अपनी इस घटी दृष्टि पर मैं नन्हें से हार मन ही मन शर्मिन्दा हो कर रह गई ।

अनंत ज्ञान
छुपा है अन्तर में
जिज्ञासु जाने ?

-0-

सोमवार, 10 अक्तूबर 2016

737



अरमानों का लिफ़ाफ़ा
प्रेरणा शर्मा
जश्न का अरमान दिल में लिये एक-एक पल की डोर को थामे जिंदगी आगे बढ़ती जा रही थी। आशा की मज़बूत डोर के सहारे ही पहाड़ सी कठिनाइयों पर भी विजय पा ली थी। आगे बढ़ने की ललक ने पीछे मुड़ने की मोहलत ही कहाँ दी ! सपनों के महल अरमानों की रोशनी से जगमग हो  सदा उत्साहित जो करते रहे। पर आज अचानक जिंदगी ठिठक- सी क्यों रही है?
बेटे की शादी का समाचार पाकर यह ठहर- सी क्यों रही है?
यही तो वह अरमान था जिसका बल मुझे सम्बल देता था। आज यह संबल मुझे बलहीन क्यों बना रहा है?
विचारों की गर्मी से गात शिथिल क्यों हुआ जा रहा है?"
सोचते हुए अतीत के साकार होते ही नयन सावन-मेघ बन झड़ी लगाने को आतुर हो उठे थे। सोच के समुद्र में डूबती हुई विचारों के भँवर-जाल में उलझती ही जा रही थी कि अचानक याद आया- शादी की तारीख़  तो आज ही है।
मन को समझाती हूँ-बहू मैंने पसंद न की सही ; है तो चाँद का टुकड़ा ।
आख़िर बेटे की पसंद कोई कम तो नहीं है। शादी के बाद उसे ही दुल्हन का जोड़ा पहना सजा लूँगी।
बेटे की पसंद पर ना होने लगा है और आज आस की डोर फिर मज़बूत होती दिखाई दे रही है। मोबाइल में वीडियो कॉल करती हूँ। मैंने दिमाग़ के पट बंद कर दिल के द्वार खोल दिए हैं।  बेटे की तरक़्क़ी और सुखी जीवन की कामनाओं का संदेश भेजते हुए अपने अरमानों का लिफ़ाफ़ा भी मैंने उसे ही सौंप दिया है। मन के भाव होंठों पर आ गीत बन गए हैं और मैं गुनगुना रही हूँ- चंदा है तू मेरा सूरज है तू ------।
तू ऊँचा उड़े
पंख बनें अरमाँ
मेरे दिल के।
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