बुधवार, 10 जून 2015

चुभन रही



डॉ सरस्वती माथुर

1- "निर्णय का दंश !"
 अभी अभी एक साहित्यिक संस्था के कार्यक्रम से लौटी हूँ । सुबह साढ़े नौ  बजे से वहाँ कार्यक्रम शुरू हुआ यह कार्यक्रम दिन भर चला ,तीन सेशन थे पहला उद्घाटन सत्र इसमें कुछ तथाकथित लोगों को काव्य- पुरस्कार दिये गए प्रथम ,द्धितीय ,तृतीय और दो सांत्वना पुरस्कार । मैं पुरस्कार के बाद पहुँची; क्योंकि वह सही निर्णय नहीं था। उन कविताओं की जज होने के कारण यह केवल मैं जानती थी । निर्णय के लिए कविताओं की फाइल मेरे पास आई थी, वह भी इस आदेश के साथ कि क्रम से लगा लें और साथ ही यह भी आदेश था कि प्रथम किसे देना है ।मन हुआ कह दूँ कि यह मैं नहीं कर सकूँगी !परिषद के अध्यक्ष सज्जन थे और पिछले 15 साल से मेरा इस संस्था से जुड़ाव था ,तो खून का घूँट पी लिया ! मेरी रचनाएँ इस संस्था से कई बार पुरस्कृत हो चुकी थी; पर पाँच साल पहले राजस्थान से बाहर लखनऊ ,इलाहाबाद व दिल्ली भेजी जाती थी। वहाँ से निर्णायक ईमानदारी से निष्पक्ष निर्णय भेजते थे !
 समय बदला ,लोगों कि मनोवृति बदली और साहित्य में पैंतरेबाज़ी और मिलावट
 होने लगी !
 बहरहाल, मुझे दो दिन का समय दिया और मैंने रिज़ल्ट तैयार कर दिया ! आप मानेंगे केवल पाँच रचनाएँ थी और मुझे फोन पर कहा गया कि मैडम दो सांत्वना दे दीजिए। उसमें से एक तो इतनी बकवास कविता थी कि सीधे कूड़ेदान में जानी चाहिए, उसे अंतिम रखा, सांत्वना में एक ठीक थी , अध्यक्ष जी से फोन पर मैंने कहा भी कि सांत्वना एक ही रहने दें क्योंकि बकवास है दूसरी कविता तो । बड़े उदासी के स्वर में बोले-" चलने दीजिए मैडम साल में एक बार कार्यक्रम किया है । यह बताना पड़ेगा ,वरन् फ़ंड रुक जाएगा ,आप तो सब समझती हैं !"बहस भी की पर उनकी गिडगिड़ाहट और व्यक्तिगत व्यवहार के आगे घुटने टेक दिये मैंने !
 निर्णय फाइनल करके भेज दिया ,तो आत्मा ने बड़ा धिक्कारा कि यह मैंने क्या किया, उससे भी ज्यादा इस बात पर हँसी भी आ रही थी कि अंतिम सांत्वना पुरस्कार पाने वाली मेरी एक कॉलेज की पुरानी दोस्त थी ,जिसे मैंने साहित्य का क ख ग सिखाया हालाँकि मौलिक रचना वे आज भी नहीं लिख सकती !पर दाद देनी पड़ेगी लोगों कि हिम्मत की और साहित्यिक चोरी की आदत की ! चोरी का आलम यह था कि उसने मेरे ही काव्य संग्रह मेरी अभिव्यक्ति से भाव चुराकर जो कविता रची उस पर ही जबरन मुझे निर्णय देना पड़ा !
, क्या यह साहित्य है ? जिसे देखो कविता लिख कर अपने को साहित्यकार व कवि समझ रहा है और हम हैं कि आज भी ईमानदारी से साहित्य को साधना समझ कर साहित्य रच रहें हैं ; लेकिन इस बार यह निर्णय भी मैंने ले लिया कि इस तरह के परिषदोंऔर संस्थाओं से दूर रहने से ही मैं अपने अंदर कि कवियत्री को बचा पाऊँगी !और तो और  सांत्वना पुरस्कार पाने वाली उस तथाकथित विजेता को तो कभी पता ही नहीं लग पायेगा कि यह निर्णय उसी की दोस्त को मजबूरन देना पड़ा। सोचती हूँ अपने आपको साहित्य सृजन में डूबो दूँ और ऐसी सभी संस्थाओं से किनारा कर लूँ ,जिससे जुड़ कर आत्मग्लानि हो!
       पर जो कर दिया उसका प्रायश्चित यही है मेरा कि कभी अब इस उधेडबुन में नहीं रहूँगी ! हमेशा सच व ईमानदारी का साथ दूँगी !
लगे अगर
ज़मीर पर चोट
सज़ा ज़िंदगी
-0-
ताँका-डॉ सरस्वती माथुर
1
मन भी तो है
एक नया सूरज
नेह धूप से
बुहार दें तम को
सँवार लें  मन को ।
2
यह  मन है
एक आँगन  जैसा
जहाँ बिछा के
रिश्तों की जाजम को
आओ नेह को बाँटें l
3
चुभन रही 
जब खो दिया हमें
समझे कहाँ
हमारी प्रीत तुम
नेह की रीत तुम l
4
दाह ये  कैसा
 तुमने ही छोड़ी  थी
 हमसे प्रीत
गैर से बोलती हूँ
तो आँख दिखाते हो ?
-0-

10 टिप्‍पणियां:

शिवजी श्रीवास्तव ने कहा…

डा.सरस्वती माथुर जी का साहित्यिक संस्था को लेकर द्वंद्व संवेदनशील मन की झकझोरता है। अधिकाँश साहित्यिक संस्थायें इसी प्रकार के चरित्र वाली हो गई हैं ,छोटा शहर हो या महानगर संस्थाएं पुरस्कार के नाम पर स्वार्थ की राजनीति कर रही हैं ,इस पीड़ा से हर ईमानदार साहित्यकार को कभी न कभी जूझना ही पड़ता है...फिर भी ईमानदार संस्थाएं भी हैं और ईमानदार कवि भी है जो आश्वस्त करते हैं।
हाइबन के साथ ही सुन्दर तांका हेतु सरस्वती माथुर जी को हार्दिक बधाई।

ऋता शेखर 'मधु' ने कहा…

सही स्पष्ट बात कही आपने...हाइकु एवं ताँका भावपूर्ण, सादर बधाई आपको सरस्वती जी !

kashmiri lal chawla ने कहा…

मुझे पढ कर बहुत दुख हुआ कई बार ऐसे फैसले भी करने
पङते हैं जो हम नही चाहते ।

मेरा साहित्य ने कहा…

aapne bahut sahi kaha hai aaj kal aesa hi ho raha hai
यह मन है
एक आँगन जैसा
जहाँ बिछा के
रिश्तों की जाजम को
आओ नेह को बाँटें l
bahut sunder
Rachana

Dr.Bhawna Kunwar ने कहा…

Bada man dukha hoga aapka main achhi traha samjh sakti hun yaha log puruskar pane ke pichhe pagal hain or sansthayen bhi bikti hain ,jinko pustak padhne ko di jaye ki isse sikhe aise likha jata hai jab vahi chori karte hain to man karta hai na jane kya kar den bahut baar meri rachnaon ki chori hui hai kuchh nahi kar payi main man kiya ki likhun or kahi talen men band kar dun par ye bhi nahi ho paya aapne sahi nirnya liya aage se koi bhi majburi aapko na roke inhi shubhkamnaon ke saath...

Krishna ने कहा…

पुरस्कार और सम्मान का सही अर्थ रहने ही कहाँ दिया है लोगो ने। झूठे पुरस्कारों के लोभ में साहित्य की ऐसी-तैसी ज़रूर फेर दी है। जो सच में बहुत दुख की बात है। सरस्वती जी आपका निर्णय बहुत बढ़िया लगा.....बहुत शुभकामनाएं।

Amit Agarwal ने कहा…

बहुत दुःखद वाकया है!
बाक़ी सब जगह पर तो 'जुगाड़' चलता ही है हमारे देश में, कम से काम इस क्षेत्र को तो इस से सुरक्षित रखा जाना चाहिए।
सुन्दर हाइकु एवं ताँका डॉ. सरस्वती माथुर जी! अभिनन्दन!!

ज्योति-कलश ने कहा…

मन के अंतर्द्वंद्व की सुन्दर ,सरल प्रस्तुति !
सराहनीय है ...
मन भी तो है
एक नया सूरज
नेह धूप से
बुहार दें तम को
सँवार लें मन को । .....तम को दूर करने और उजाला फैलाने का सुन्दर मन्त्र है !!

हार्दिक बधाई डॉ. सरस्वती माथुर जी !!

रमेश गौतम, बरेली ने कहा…

..हाइकु एवं ताँका भावपूर्ण, सादर बधाई

प्रियंका गुप्ता ने कहा…

साहित्य में यह गिरावट सचमुच बहुत शर्मनाक और निंदनीय है...| सच से रू-ब-रू कराते हाइबन और मनभावन तांका के लिए बधाई...|