बुधवार, 30 दिसंबर 2015

669


रामेश्वर काम्बोज हिमांशु

1


हे मन धीर धरो
कौन यहाँ बाँटे
खुद अपनी पीर हरो ।
2
मन की मन कह लेना
सुख-दुख साथी हैं
जो मिलता सह लेना।
3
आँसू बह जाएँगे
कितना भी रोकें
पीड़ा कह जाएँगे।
4
पर्वत चढ़ने वाले
ये कब गिनते हैं
पाँवों के जो छाले।
-0-

शनिवार, 26 दिसंबर 2015

668

मुट्ठी भर खुशी
प्रियंका गुप्ता
याद कीजिए वो बचपन के दिन...दीवाली की मस्ती का खुमार अभी पूरी तरह उतरा होता भी नहीं था कि कहीं न कहीं से सांता क्लॉज़ के आने की सुगबुगाहट शुरू हो जाती थी । माताएँ बच्चों को कई दिन पहले से धमकाने लगती...ज़रा भी बदमाशी की या बड़ों की बात न मानी तो देखना...सांता क्लॉज़ तुमको कोई गिफ़्ट नहीं देंगे...और हम कुछ दिनों के लिए बहुत समझदार बन जाते । रोज़ रात को कभी फुसला के, तो कभी धमका के हमको सुलाने वाली माँ क्रिसमस की पूर्व संध्या पर चैन की एक लंबी साँस लेती जब हम बहुत प्यारे और सीधे-साधे बच्चे की तरह नौ बजते-बजते अपने सिरहाने मोज़े-दस्तानो से लेकर एक बड़ा सा झोला भी रख के चुपचाप गहरी नींद सो जाते, इस आशा और उम्मीद के साथ कि शायद सांता क्लॉज़ के पास हमारे लिए इतने सारे गिफ्ट्स निकल आएँ कि मोज़ा और दस्ताना उसको रखने के लिए छोटा पड़ जाए । अब ये बात दूसरी है कि सुबह कोई छोटी-मोटी सी चीज़ मिलने पर हमारे पास सिर्फ दो ही विकल्प होते थे...या तो उन्हें पाकर हम उछलते-कूदते पूरी ख़ुशी मना लें या फिर मुँह लटकाने पर...सांता ने तुम्हारी सब बदमाशी देखी, इस लिए ये दिया, और करो बदमाशी...का ठीकरा अपने सिर फुटवाएँ । ऐसे में अंदर ही अंदर कुढ़ने के बावजूद ज़्यादातर पहला विकल्प चुन के ही खुश हो जाते थे हम लोग...।
बहुत बार यूँ भी होता था कि कोई ऐसा जलखुखरा साथी जिसे सांता ने एक भी गिफ्ट नहीं दिया होता था, वह हमारे गिफ़्ट और उनके संग बोनस में मिली ख़ुशी को बड़ी बेरुखी से नज़रअंदाज़ करता हुआ मुँह बिचका देता था...हुंह...बड़े आए सांता वाले...ये सांता वांता कोई नहीं होता...ये तुम्हारी मम्मी रखे होंगी रात को...हमारी अम्मा सब जानती हैं ये सब चोंचले...।
ऐसी जली-कटी सुन कर बहुत कम ही ऐसा होता था कि वो ज्ञानी-महात्मा हमारे कोप से बच पाया हो । अब ये बात और है कि बाद में लुटे-पिटे से...मुँह बिदोरते हुए हम जब माँ के पास पहुँचते थे तो वहाँ जो भी आफ्टर इफ़ेक्ट होते थे, उनके किस्से फिलहाल बताने से क्या फायदा...?
आज हम सब बड़े हो चुके हैं और सांता की असलियत से भी पूरी तरह वाक़िफ हैं, पर जाने क्यों क्रिसमस के करीब की इन सर्द रातों में जब हम खुद के साथ नितांत अकेले होते हैं तो दिल करता है, काश ! झूठी ही सही, पर क्या एक बार फिर हमारे सो जाने के बाद चुपके से आकर सांता हमारी खाली हथेलियों में मुट्ठी भर खुशी नहीं छुपा सकते...?
सपने देखे
मासूम बचपन
बहल जाए ।

-0-

चुंबकीय मुस्कान

कमला घटाऔरा

रविवार का ठंड वाला दिन ! हमें हंसलो से अंडर ग्राउंड ट्यूब लेकर रिश्तेदारी में ईस्ट लंदन  अखंडपाठ के भोग पर जाना था । बाहर ठंड थी लेकिन मन भीतर गर्मागर्म विचारों का संघर्ष चल रहा था। ट्रेनों में धक्के खाते जाओ और अँधेरा होने के डर  से तुरंत लौट पड़ो। न किसी से ठीक से मिलना न कोई बात।


छुट्टी वाले दिन भी ट्यूब खचा खच भरी थी। भाग्य से बैठने की सीट मिल गयी। सामान के साथ लोगों का चढ़ना उतरना घुटनों को सिकोड़ कर बैठने को विवश कर रहा था। हर स्टेशन पर एक रेला आता। एक उतरता। भीड़ वैसी की वैसी। किसी को किसी से कोई परेशानी नहीं थी । सामान्य भाव बनाये रखने वाला मेरा मुखौटा ही धीरे -धीरे खिसकने लगा। मैं बार -बार स्टेशन गिनती और कितने स्टेशन  बाकी हैं।
मेरी दृष्टि मुसाफ़िरों को घूम -घूम कर देखती। वे तो जैसे बाहरी दुनिया से बेखबर अपने में मस्त अपने अपने गन्तव्य की ओर जा रहे थे मौन धारण किये। उन्हें किसी से कुछ लेना देना नहीं था। हर स्टेशन पर नए चेहरों के दर्शन होते। पुराने उतरते। देश विदेश के नाना भाँति के लोग। ध्यान  तभी भंग होता जब आने वाले स्टेशन की एनाउंसमेंट होती। और स्टेशन आने पर सावधान किया जाता .... ‘ माइंड दा गैप विटविन स्टेशन एंड प्लेटफार्म ‘


तभी…  एक स्टेशन पर एक ऐसे हँसमुख चेहरे ने प्रवेश किया। जिसकी दिव्य मुस्कान ने सारे डिब्बे को जगमगा दिया। घना कोहरा जैसे छँट गया। ताजे गुलाब की सी खिली- खिली उस मुस्कान की सुगंध ने मुझे जैसे किसी बाग में पहुँचा दिया । ख़ीज भी कहीं गायब हो गई । उस चेहरे में ऐसा चुंबकीय आकर्षण था जिसने मेरी दृष्टि को बाँध लिया। मेरे अंदर जो अवसाद भरा था पता नही कहाँ चला गया। कैसे ? यह भी नहीं जानती। वह न कोई जान पहचान वाली थी ,न कोई सखी सहेली। गौरवर्ण की सुकुमार सी युवती। किस देश से है? चेहरे से अंदाजा नही लगाया जा सकता था। वह कहीं से शायद छुट्टियाँ काट कर आ रही  थी। सामान से  लदालद भरे हुए दो भारी अटैची  लिये । एयर पोर्ट के टैग उनपर अभी भी लटक रहे थे।


कोई अनजान अपनी मधुर मुस्कान से किसी को आकर्षित करता कईओं ने देखा होगा। लेकिन  ऐसी चुंबकीआ मुस्कान दुर्लभ ही देखने को मिलती है। हमारा एक दूसरे से मूक वार्तालाप कुछ क्षणों का ही था; क्यों कि  मेरा गन्तव्य आ गया था। मैंने उतर कर मुड़के देखा जैसे उस से विदा ले रही हूँ। लेकिन मेरे चेहरा घुमाकर देखने से पहले ही ट्यूब काफ़ी आगे जा चुकी थी। मन उदास सा हो गया दुबारा उस मुस्कान की शीतलता, मधुरता ,अपनत्वपनभरी खींच कभी उपलब्ध होने वाली नही थी । इतने बड़े विश्व में बिना नाम पते  के किसी को भी ढूँढा नही जा सकता। उस की तो मिलने की कल्पना करना भी बेकार था। तभी मुझे अहसास हुआ कि मैं उसे ट्रेन में छोड़ कर नही आई बल्कि वह तो मेरे साथ साथ चली आई है मेरे मन में बैठ कर। जुदा न होने  के लिए। क्यों कि मेरे मन में अब कोई विषाद, कोई ख़ीज नहीं थी। विषाद भरे मन पर शीतलता का छिड़काव करने  जैसे प्रभु की माया ही अपनी जादुई मुस्कान बिखेरने आई थी वह तो । मेरा मन प्रसन्ता की रौशनी  से भर गया। मेरे कदम बिना किसी आनाकानी के ट्यूब स्टेशन से बाहर आकर अपनी राह चल पड़े …


छँटे बादल
हँसी सूर्य किरण
हुआ उजाला।


गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

667


1- माहिया
अनिता ललित
1
चिटके सुख का प्याला
जैसे उम्र ढले
विष सी जीवन-हाला।
2
भाए ना जीवन को
दुनिया के मेले
ठेस लगे जब मन को।
3
पीड़ा मन की गहरी
आँखों से छलके
पलकों पर आ ठहरी।
4
सपन करे हैं बैना
बन के किर्च चुभें
सोना भूले नैना।
-0-
2- चोका 
मंजूषा मन

इंतज़ार था
तुम महसूसोगे
प्यार ये मेरा
मेरी खामोश जुबाँ
आँखों की भाषा
या जो ये भी नहीं तो
तुम अपने
मन को टटोलोगे
फिर ज़रूर
ख्यालों के परदे को
तुम ही खोलोगे
तुम बात मन की
तब बोलोगे
तुमने पर कभी
समझा नहीं
मेरे मन के भाव
और अपने
मन के जज्बात को।
पर तुमने
कोशिश ही नहीं की
जानना चाहा
न ही कुछ बताना
फिर आखिर
मेरी तुम्हारी राहें
जुदा हो गईं
जीवन की कहानी
नहीं हुई सुहानी।
-0-

मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

666



1-तू तो आया ही नहीं
डॉ भावना कुँअर

ये हरपल
तकती रही आँखें
तेरा ही रस्ता
मर-मर कर भी
पर जाने  क्यों
तू तो आया ही नहीं।
याद है मुझे
पीड़ा-भरा वो तेरा
व्याकुल स्वर।
तेरा बीमार होना
मेरा मिलना
बड़ा ही जोखिम था।
तेरी आवाज़
खींच ले गई मुझे
तेरे करीब
देरी किए बिना ही
पहुँची थी मैं।
सुकून-भरा चेहरा
देखा था मैंने,
खुशी से मोती झरे
जी गए हम
पा गए थे जीवन
खिल उठा था
तेरा उदास मन।
कितना मरी
तूने नहीं था जाना
जली -कटी भी
बेहिसाब थी सुनी,
उफ़ !नहीं की,
लड़खड़ाते पैर
काबू में न थे,
फिर भी न रुकी ये
प्रेम की गली।
आज मैंने क्या माँगा?
तेरा ही साथ,
कौन -सी मजबूरी
बनी हैं बेड़ी,
तकती रही आँखें
तेरा ही रस्ता,
मरमर कर भी,
पर जाने  क्यों
तू तो आया ही नहीं।
मिट रही थी
तिलतिलकर मैं
खो ही चुकी थी
सुरों की भी झंकार
डरी- सहमी
बस तकती रही
रस्ता मैं तेरा
पर तू नहीं आया।
कैसे भुलाऊँ
वो दर्द भरे पल?
कैसे गुजरे
तुझे कैसे बताऊँ?
मन उदास
ना तो अब शब्द हैं
न कोई गीत
न कोई भी आभास
ना ये धरती
ना ये सूना आकाश
ना तू ही मेरे पास।
-0-

2-आकर्षण
अनिता मण्डा

भीतर कुछ
जलता अलाव- सा
बुझता कब
किया आँसुओं का भी
है आचमन
जाने कितनी बार
एक बेचैनी
रहती भरी हुई
है हर पल
बंजारे हुए नैन
किसे ढूँढ़ते
पाते हैं कब चैन
छूना है नभ
फैलाकर भुजाएँ
चाहूँ उड़ना
उठते नहीं पाँव
बाँधे है मन
कितने आकर्षण
या गुरुत्वाकर्षण।
-0-