रविवार, 30 नवंबर 2014

नारी की सोच



सुदर्शन रत्नाकर
1
नारी की सोच
सागर- सी गहरी
फिर भी वो बेचारी,
क्यों  होता ऐसा
तिल -तिल जलती
ख़ुशियाँ वो बाँटती ।
2
द्वार खुले हैं
ठंडी हवा के झोंके
छू रहे तन मन,
फिर भी कहीं
पिश है भीतर
अरक्षित होने की ।
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बुधवार, 26 नवंबर 2014

‘राशनिंग’ धूप की



चोका
राशनिंग धूप की
डॉ सुधा गुप्ता

शीत राजा ने
शुरू की मनमानी
क्या करे कोई ?
नए क़ानून बने
हुई घोषणा :
राशनिंग धूप की !
बन आई है
अफ़सरशाही की
देर से ख्ले
सूरज का दफ़्तर
बन्द हो जल्दी
निष्ठुर अधिकारी
एक न सुने
किसी फ़रियादी की
पीड़ित जन
गुहार लगाते औ
कँपकँपाते
धरती बस रोती
दूर्वा भिगोती
धूप को तरसते
बेबस प्राणी
निहोरा हैं करते
पंछी बेचारे
ठण्ड से ठिठुरते
बेमौत मरें
गुमसुम से खड़े
पेड़-पौधे भी
बस, आहें भरते
असर नहीं
किसी भी  प्रार्थना का
पत्थर दिल !
रोते-बिलखते
छोड़ सभी को
चल देता सूरज
तख़्ती लटका
बसकोटा ख़त्म की
आततायी का
ठिठुरते जग से
नहीं है नाता
अन्यायी राजा सदा
दीन प्रजा सताता ।
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(14-15 नवम्बर , 2014)
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2-शरदागमन---माहिया
शशि पाधा
 1
यह मौसम गीला- सा
पर्वत धूप छिपी
सूरज कुछ  ढीला सा
2
डाली क्यों काँप रही
आहट सर्दी की
सिहरन से भाँप रही |
3
इत -उत क्यों डोल रही
अँगना धूप खड़ी
मुख से ना बोल रही
4
हरियाली छोड़ रहे
चादर बर्फीली
पर्वत सर ओढ़ रहे 
5
अम्बर कुछ नीला -सा
 झिलमिल तारों में
 इक चाँद सजीला -सा 
6
यह धरती सोई है
ओढ़ दुशाला तन
सपनों में खोई है
7
यह कैसी साजिश है
ठंडी धूप  हुई
ओलों की बारिश है
8
सूरज को टोक रहा
शरद सिपाही- सा 
किरणों को रोक रहा
9
रुत कुछ भरमाई -सी
सूरज मंद हुआ
किरणें अलसाई -सी
10
मौसम बंजारे हैं
सर्दी -गर्मी से
हम तो ना हारे हैं
 -0-

रविवार, 16 नवंबर 2014

दर्द -लकीर




डॉभावना कुँअर

1
दिल का दर्द
दिखने नहीं देते
आँसू छिपके पीते,
दर्द -लकीर
मान के तक़दीर
मुट्ठी में भर लेते।
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