शनिवार, 27 जुलाई 2013

विदीर्ण धरा

पुष्पा मेहरा
1
रोपे थे बीज
सोचा झूमेगी क्यारी
होंगे ढेरों प्रसून,
उगी न पौध
खिला न कोई फूल
सूखी पड़ी थी  क्यारी।
2
यहाँ से वहाँ,
फैली विदीर्ण धरा
निहारती अम्बर,
बोली फफक-
 प्यासी मैं रह गई
बुझा दो मेरी तृष्णा।
3
चलते  चलें
घट ले, दूर कहीं
खोज लें कूप भरा,
जा बसें जहाँ-
न हो कोई तृषित
तृप्त रहें अधर।
4
कौन हो तुम !
सुन, बोली- श्रावणी
नभ- मंडल वासी-
घटाएँ हैं हम
सजाएँगी  धरणि
हरषायेंगी  मन।
5
वादियाँ कहें
आपस में रो-रो के-
घनी पीड़ा दे गया
फफोला बड़ा-
फूटा, तन्नाया- बहा

तीर किसने मारा !

4 टिप्‍पणियां:

Subhash Chandra Lakhera ने कहा…

" वादियाँ कहें / आपस में रो-रो के-/ घनी पीड़ा दे गया / फफोला बड़ा /- फूटा, तन्नाया- बहा/ तीर किसने मारा!" आपके सेदोका अनुभूति की बेहतरीन अभिव्यक्ति हैं। पुष्पा जी ! बधाई स्वीकार करें ।

Manju Gupta ने कहा…

उत्कृष्ट प्रस्तुति .

बधाई .

Krishna ने कहा…

बहुत बढ़िया सेदोका!
पुष्पा जी....बधाई!

ज्योति-कलश ने कहा…

वादियाँ कहें
आपस में रो-रो के-
घनी पीड़ा दे गया
फफोला बड़ा-
फूटा, तन्नाया- बहा
तीर किसने मारा !....बहुत प्रभावी ...बहुत बधाई !!

सादर
ज्योत्स्ना शर्मा