मंगलवार, 4 अक्तूबर 2011

श्रम के बल


1                                                                                                           

बरसे मेघ
मन मयूर नाचा
हुआ विभोर
पुलकित हवाएँ
आनंदगीत गाएँ।

  
2

तृप्त हो मन
मिटती भूख सारी
बिठा के पास
जब अम्मा परोसे
अपने हाथ रोटी।


3

बोल न पाये
हँस के जतलाये
अपनी खुशी
बच्चे की किलकारी
लगे बहुत प्यारी।

4

गिरना तो है
उठने का अभ्यास
न हो उदास
गिर के उठते जो
शिखरों को छूते वो।

5

श्रम के बल
कामयाबी के ध्वज
जो फहराते
नई इबारत वो
जग में लिख जाते।


....सुभाष नीरव 

3 टिप्‍पणियां:

Shabad shabad ने कहा…

सुभाष जी ,
बहुत ही भावपूर्ण ताँका लिखे हैं |
बरसात का मौसम किसे नहीं भाता ......मन मयूर तो नाचेगा ही !
बहुत खूब लिखा है ..
बरसे मेघ
मन मयूर नाचा
हुआ विभोर
पुलकित हवाएँ
आनंदगीत गाएँ।
कहीं अम्मा चूल्हे के पास बैठी रोटी पकाती दिखाई दे रही है तो कहीं बच्चे की किलकारी सुनाई देती है |श्रम के बल की एकदम सटीक परिभाषा लिखी है |
आशा है कि आपकी कलम से ऐसे ही सुंदर शब्द पढ़ने को मिलते रहेंगे !
बहुत बधाई !
हरदीप

amita kaundal ने कहा…

बहुत सुंदर तांका हैं माँ के हाथ की रोटी की स्वाद याद आ गया बधाई.
सादर
अमिता कौंडल

Rachana ने कहा…

गिरना तो है
उठने का अभ्यास
न हो उदास
गिर के उठते जो
शिखरों को छूते वो।

bahut sunder bhavon pr to aapki pakad ke kya kahne
badhai
saader
rachana