मंगलवार, 4 मार्च 2025

1212

 

हाइबन

1. हवा में घुली धुन/ अनिता मंडा

 


खुली खिड़कियों से वह बाँसुरी की धुन अबाध घर में चली आती। अक्सर कोई पुराना फ़िल्मी गीत वह बाँसुरी पर बजा रहा होता। 'ओ फ़िरकी वाली, तू कल फिर आना....',  आ जा तुझको पुकारे मेरा प्यार...',  'सौ साल पहले हमें तुमसे...' उसके जाने के बाद भी धुन हवा में घुली रहती। 

 

हर बृहस्पतिवार की सुबह वह इस ब्लॉक से निकलता। शायद हर वार के लिए अलग-अलग मुहल्ले तय कर रखे थे। एक लंबा- सा बाँ का डंडा और उस पर बँधी हुई अलग-अलग आकार की बाँसुरिया। पर हमारे मुहल्ले में कोई बच्चा घर से बाहर ही नहीं निकलता , जो बाँसुरी खरीदने की जिद्द करे। 

 

वह अक्सर जैसे सड़क पर घुसता वैसे ही निकल जाता। कोई भी बाँसुरी खरीदने बाहर न निकलता। 

मेरे आस-पास कोई भी नहीं जिसे बाँसुरी बजानी आती हो। संगीत में कितना सुकून है , फिर भी हमारे जीवन में कितना कम संगीत बचा है। आसपास कई संस्थान हैं , जो बच्चों को गिटार, ड्रम, की-बोर्ड आदि सिखाते हैं ; लेकिन उस बाँसुरी-वादक जैसी बाँसुरी मैंने वहाँ भी नहीं सुनी। 

 

क्या पता उसे भी कोई अच्छा प्लेटफॉर्म मिले , तो वह भी अपने हुनर को संसार के सामने ला सके। उसे देख निदा फ़ाजली साहब की पंक्ति याद आ जाती है- 'कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता'  

दुनिया का कारोबार अपने हिसाब से चलता रहता है। अनजाने ही कुछ धुनें मौसम बदल जाती हैं। 

हवा में घुली

बाँसुरिया की धुनें

मन को धुनें।

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2-सेमल

 


      सेमल को देकर 'सैन भगत' की एक पंक्ति हठा्त् होठों पर चली आती है- 'यो संसार फूल सेमर को, बूर-बूर उड़ जावे।'

मार्च महीने में दिल्ली के पार्क और सड़कों पर सेमल ख़ूब जलवे बिखेरता है।

साल भर हरा-भरा रहने वाला सेमल मार्च का महीना आते आते पर्ण-विहीन होने लगता है। सीधा तना और गर्व से आसमान को छूने की कोशिश में सेमल जिस ठाठ बढ़ता है, अद्भुत है।

   सर्दियों में साथ रही, बुढ़ाई पत्तियाँ एक-एक कर अनवरत झरती जाती हैं, मानों शीत के बीतने पर पुराने वस्त्र बदले जा रहे हों। ज़र्द पत्तियों की जगह लेने को आतुर लाल-लाल हठीले फूल तुनक कर रिक्त शाखों को भर देते हैं। पर्ण-विहीन सेमल मानों होली के स्वागत में लाल गुलाल अपनी काया पर लपेट लेता है। 

   फिर कुछ समय बाद चटकीला लाल भी बूँद-बूँद कर बिखरने लगता है। अप्रैल जाते- जाते फल भी रेशा-रेशा हो कर हवाओं का दामन थाम यहाँ-वहाँ उड़ जाता है। फिर से शाखों पर पत्तियाँ आ जाती हैं। 

योगी सेमल

दुःख-सुख में थिर

प्रार्थनारत।

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 3.बेचैनी का सुकून/ अनिता मंडा

 फरवरी में खिलते फूल जहाँ मन को लुभाते हैं, हवाओं में सौरभ घुली होती है, भँवरे तितलियाँ पराग पीकर अघा नशे में झूमते से उड़ते हैं; वातावरण मन को लुभाता है; लेकिन मार्च की शुरुआत होते होते हवाएँ थोड़ी रूखी होने लगती है। फागुन में एक नशा होता है। बीतता फागुन अपने पीछे अजीब सी उदासियाँ बिखेर देता है। 

 हवाएँ बेबात पेड़ों से उलझती हैं। पीत- पर्ण सहजता से उनके साथ चल पड़ते हैं। जैसे मोह के सारे बन्धन तोड़ दिए हों। आश्चर्यजनक रूप से पत्तियाँ एक के पीछे एक बेआवाज़ गिरती जाती हैं। न पीछे मुड़क देखना, न कुछ साथ लेना। एक अजीब फकीराना चाल कि अब न मुड़के देखने वाले हम। 

 ठीक ठीक नहीं पता कि सुकून है या बेचैनी।  यह पतझड़ लुभाता है या एक खालीपन मन पर तारी होता जाता है। झरती पत्तियों से खाली होती शाखाएँ। ऐसा भी क्या निर्मोह। मन की दशा बार-बार बदलती है। स्थिर तो कुछ भी नहीं। हवा का जाने क्या खो गया है कि पत्तियों को उलट-पलटकर ढूँढती है। जैसे कुछ रखकर भूल गई हो। वो जो भूल गई है नए रंग; वो कुछ दिनों में शाखाओं पर फूटेंगे।

बौराई हवा

क्या तो जाने ढूँढती

पात हिलाती।

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सोमवार, 3 मार्च 2025

1211-हाइबन

 

1-नदी का दर्द / डॉ. सुरंगमा यादव

 


दरीनाथ धाम के लिए हम सब बदायूँ से सुबह सात बजे निजी वाहन से निकले। हल्द्वानी तक तो पहाड़ी और मैदानी रास्तों में अधिक अंतर पता न चला; परन्तु उसके बाद हम जैसे -जैसे ऊपर चढ़ते गए, पहाड़ काटकर बनाये ग गोल घुमावदार रास्ते रोमांच मिश्रित भय की अनुभूति कराने लगे। जब गाड़ी ओवरटेक होती, तो नीचे गहरी खा देखकर जान ही सूख जाती। पहाड़ों से बहते हुए झरने दुग्ध की धवल धार से प्रतीत हो रहे थे। मन में सहसा प्रश्न  उठा, अपने  अंतस्तल से निर्मल,शीतल, शुद्ध जलधार प्रवाहित करने वाले पहाड़ों को कठोर क्यों कहते हैं?दूर तक फैले ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों पर बहते हुए झरनों की पतली धार आँसुओं की सूखी रेखा-सी  प्रतीत हो रहे थे। शायद अपनी ऊँचाई  के कारण एकाकी पहाड़ स्वयं को ही अपना सुख-दुःख सुनाकर हँसते-रोते रहते हैं।  जागेश्वर जी पहुँचते- पहुँचते अँधेरा हो गया। ड्राइवर ने रात्रि में आगे चलने से मना किया, तो हम लोग रात्रि विश्राम के लिए वहीं रुक ग। प्रातः हमने अपनी यात्रा पुनः शुरू की।  दोपहर होते- होते हम उत्तराखंड के चमोली जनपद में अलकनंदा नदी के तट पर स्थित बदरीनाथ धाम पहुँच ग। अलकनंदा  का जल हल्का हरा रंग लिये हुए इतनी तीव्र गर्जना  और वेग के साथ बह रहा था, मानो पहाड़ रूपी पिता के घर से विदा लेते समय मन में भावनाओं  का रेला उमड़ पड़ा हो। जल इतना निर्मल कि उसमें पड़े हुए पत्थर भी साफ नजर आ रहे थे। यही पहाड़ी नदियाँ सागर से मिलने की आतुरता में अपने मैदानी सफर में कितनी मलिन हो जाती हैं!

सागर दूर

मैदानों संग नदी

हुई बेनूर।

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2- लहरें / डॉ. सुरंगमा यादव

 अत्यंत सौभाग्य से हमें ओडिशा राज्य के तटवर्ती शहर  पुरी में स्थित श्री जगन्नाथ जी के दर्शन हुए।  जब हम पुरी पहुँचे, तो शाम हो चुकी थी।  हम लोग होटल तलाशने लगे। समुद्र तट के पास वाले होटल  तथा समुद्र से कुछ दूरी पर स्थित होटल के दाम में अंतर था। हमने ऐसी जगह कमरा लिया, जहाँ से समुद्र दिखा दे। सामान कमरे पर छोड़कर हम पुरी घूमने निकल पड़ेभूख भी जोरों की लगी थी। शाकाहारी भोजनालय तलाशने हमें काफी मेहनत करनी पड़ी,तब जाकर मारवाड़ी भोजनालय मिला। खाना खाकर टहलते हुए हम लोग समुद्र तट की ओर चले ग। बहुत हल्की रोशनी ,दिन की अपेक्षा अधिक गर्जना के साथ ऊँची उठतीं लहरें, पलक झपकते ही हमें छूकर लौट जातीं और मन में भय-सा भी उत्पन्न कर देतीं।  कमरे पर भी समुद्र की घनघोर गर्जना सिहरन पैदा कर रही थी। अगले दिन सुबह-सुबह ही हम लोग समुद्र तट पर पहुँच ग। अद्भुत नजारा था। अलग ही आनंद आता  था जब सर्प की तरह रेंगती लहरें वेग के साथ ऊपर उठकर हमें  नहलाकर फिर वापस आने के लिए चली जातींलहरों की तीव्रता से पाँव के नीचे से रेत  सरकने से हम लड़खड़ा जाते।

समुद्र  तट पर वेग से आती ऊँची-ऊँची लहरें अपने साथ सीप,घोंघे,छोटे-छोटे पत्थर आदि लेकर आतीं,तो दूसरी ओर रेत पर उकेरे ग पूर्ण-अपूर्ण स्वप्नों, भावनाओं और घरौंदों को बड़ी बेरहमी से समेट ले जातीं और मानों कहती जातीं -जीवन का अस्तित्व ही यही है-

समुद्र- तट

स्वप्न घरौंदे देख

लहरें हँसें।

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3- आस्था / डॉ. सुरंगमा यादव

 भगवान कृष्ण की लीला स्थली मथुरा में स्थित निधि वन, गोवर्धन पर्वत, ब्रज भूमि तथा यमुना को देखने की इच्छा लंबे समय से मन में थी। सच्चे मन की अभिलाषा राधा-कृष्ण की कृपा से जल्दी ही पूरी हुई।  हम लोग सपरिवार मथुरा पहुँचे। मथुरा जाएँ और गोवर्धन पर्वत  की परिक्रमा न करें ऐसा कैसे हो सकता!हम गोवर्धन जी  की परिक्रमा के लिए चल पड़े। यह परिक्रमा पाद  परिक्रमा, दण्डवत् परिक्रमा सहित कई प्रकार  से की जाती है। दोपहर के समय धूप बहुत तेज होने के कारण हम यह परिक्रमा गाड़ी से ही करने लगे। कई मंदिरों, कुण्डों तथा वृक्ष वाटिकाओं से सुसज्जित गोवर्धन परिक्रमा मार्ग सात कोस या लगभग 21 कि. मी. का  है।  गोवर्धन परिक्रमा मार्ग में एक स्थान पर हजारों की संख्या में लाल पत्थरों से बने खिलौनेनुमा  छोटे-छोटे प्रतीकात्मक घर देखकर हम आश्चर्य में पड़ ग। कुछ श्रद्धालु हमारे सामने भी पत्थरों से घर की आकृति बना रहे थे। इतनी बड़ी संख्या में छोटे-छोटे घर देखकर लग रहा था, मानो कोई सघन बस्ती हो। घर भी अलग-अलग ऊँचाई के थे। कोई घर केवल सिर पर छत की कामना से बना था, तो कोई एक मंजिल, कोई दो-तीन मंजिल का भी था। पूछने पर पता चला कि यहा मान्यता है कि जो लोग यहाँ इस तरह अपने सपनों का घर बनाकर मन्नत माँगक जाते हैं, उनका घर जल्दी ही बन जाता है। सचमुच आस्थाएँ भी कितनी बड़ी होती हैं। अपनी इच्छाएँ,दुःख-तकलीफ सब कुछ ईश्वर से कहकर मन हल्का कर लेती हैं।

मन की बात

पत्थर में देवता

उठते जाग 

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4-चिल्का की झील- उड़ीसा का प्राकृतिक सौंदर्य /  अंजू निगम

 


उड़ीसा के चंद्रभागा तट से टकराती समुद्र की उत्कट लहरें। कतार में लगे, हवा के साथ दौड़ लगाते नारियल के विशालकाय वृक्ष। इन वृक्षों के समानांतर चलती सीधी-सपाट सड़क, चिल्का झील तक पहुँचती है। चिल्का का विहंगम दृश्य मन को सम्मोहित कर गया। सैलानियों का जमावड़ा और जल- क्रीड़ा करते प्रवासी पक्षी। ईश्वर ने मानो किसी कुशल चितेरे- सा प्रकृति को अनंत तक कैद कर रखा हो। दूर तक फैला जल- क्षेत्र और क्षितिज से मानो होड़ करता, धुँधला- सा नजर आता एशिया का सबसे बड़ा लैगून।

लैगून देखने की उत्सुकता लगभग हर सैलानी को थी। हम भी इतनी दूर लैगून को पास से देखने की इच्छा लेकर ही आ थे। नीली, साफ, स्वच्छ चिल्का झील और  समुद्र के पानी का खारापन आपस में मिल, जीवन का एक सुदंर संदेश दे रहे थे। मीठा और खारा भी आपसी सामंजस्य स्थापित कर एक- दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार कर, साथ साथ प्रवाहित हो रहे थे।

चिल्का की झील

प्रवासी पक्षियों को

देती आश्रय

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रविवार, 2 मार्च 2025

1210

हाइबन / कृष्णा वर्मा

स्नोफॉल (कनाडा) 

कनाडा की लम्बी सर्दी में दिसम्बर माह से और कभी-कभी तो नवम्बर माह से ही स्वभाविक रूप से बर्फ़ गिरने लगती है। कमरे की खिड़की से बर्फ़ के नर्म फाहों को गिरता देखकर मन खुशी से गुदगुदा जाता है। कई बार अपनी बालकनी में खड़े हो कर इन मखमली फुहारों का नन्द लिया है। प्रकृति भी क्या चीज़ है जो बिना कुछ कहे ईश्वर के कितना क़रीब कर देती है। सर्दी के मौसम में यह आए दिन का मामूल है थोड़ी देर बर्फ़ पड़ती है, बादलों की ओट से जैसे ही सूरज झाँकता है, पानी-पानी होकर बर्फ़ धरती में समा जाती है। जिस दिन जमकर पड़ती है, उस दिन धरती का चप्पा-चप्पा दूधिया सफ़ेद मोटी परत से जाता है। चाँदी- सी चमकती रातें, पेड़ों की नाज़ुक टहनियों पर, डालों की पीठ पर, पत्तों की हथेलियों पर जमी बर्फ़, छत्तों और छज्जों पर लटकती बर्फ़ की झालरें देखकर किसी और ही लोक की प्रतीति होती है। कितना अनूठा दृश्य होता है,  जब सूरज की किरणें पड़ते ही चारों ओर हीरे की कणियों सा दमक उठता है ! ऐसा लगता है- जैसे धरती पर स्वर्ग उतर आया हो। बच्चों की खुशी का तो ठिकाना नहीं रहता। स्नोसूट, बूट, हैट, दस्ताने पहनकर कड़कती ठंड में बर्फ़ से खेलना उन्हें बहुत भाता है। हाथ- मुँह भले लाल सुर्ख़ हो जाएँ,  पर बर्फ़ के गोले बनाकर खेलना, घर, पुतले और टॉवर बनाने का नन्द उठाने से नहीं चूकते। पिछले सप्ताह तो हद ही हो गई। जाने बादलों ने किससे ज़िद  ठान ली थी। ऐसी तूफ़ानी बर्फ़बारी हुई कि हफ़्ता भर थमने का नाम ही नहीं लिया। बर्फ़ से अँटे रास्ते रुक गए, गाड़ियाँ पूरी तरह से ढक गईं और जाम हो गईं, स्कूल कॉलेज बंद हो गए। सड़कों पर यातायात अवरुद्ध हुआ। फिसलन से कितनी ही दुर्घटनाएँ हुईं। कुछ घरों के तो वेंट तक बंद हो गए। हीटिंग बेअसर हो गई। आँगनों से बर्फ़ हटाते- हटाते लोगों की कमरें दोहरी हो गईं। मेरे घर की बालनी में भी इतनी ऊँची बर्फ़ थी कि आधे- आधे दरवाज़े गए थे। क़ुदरत के खेल भी निराले हैं, क्या भरोसा कब क्या कर दे, कैसा खेल दिखा दे। इंसानों की तरह प्रकृति के भी कई रूप होते हैं। जितने ख़ूबसूरत, उतने ख़तरनाक भी।       

1

हिम के झारे 

रजत धरा पर 

स्वर्ग नज़ारे।  

2

प्रकृति खेल 

जाने कब रोक दे 

जीवन रेल। 

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शनिवार, 1 मार्च 2025

1209

 

 

तुम बहुत याद आओगे

 प्रियंका गुप्ता

 


उस रात जाने क्यों मन थोडा उदास- सा था...अजीब सी बेचैनी। बहुत सारी बातें थी मन में, पर समझ नहीं आ रहा था कि बेचैनी थी आखिर किस बात पर। अजीब- सा अहसास। बहुत हद तक कारण अगले दिन समझ आ गया,जब शैडो के जाने की ख़बर मिली।

 

शैडो, कहने को किसी को जो हिकारत से कहा जाता है, था.यानी कि गली का कुत्ता, स्ट्रीट डॉग था व मेरी गली का एक वफादार बाशिंदा। बहुत सारे इंसानों से ज्यादा भावनाएँ मैंने उसमें देखी थी। इंसानी हिसाब से देखा जाए, तो वो एक दीर्घायु जीकर गया। तेरह साल की उम्र, जब कुत्तों की अधिकतम आयु शायद चौदह साल ही होती है।

 

अंतिम के तीन दिन, जब उसने खाना-पीना छोड़ा, उसके पहले तक वो सचमुच शैडो बनकर मेरे साथ चला। नाम उसका वैसे मोती था, पर जब वइस मोहल्ले में आया था, जाने कैसे चुनमुन ने उसे `शैडो' बुलाना शुरू कर दिया था। अपने दोनों नाम पहचानता था, बातें समझता था। रात को मेरे गेट का ताला बंद होने से पहले अगर किसी दिन वो कहीं लापता होता और रोटी न खा पाता, तो दूसरे दिन सुबह गेट खोलते ही एक ख़ास अंदाज़ में शिकायत होती मुझसे और मेरे इतना कहते ही-हाँ-हाँ, समझ गए, कल खाना नहीं मिला था न, अभी देते हैंबिलकुल शांत हो जाता था।

 

लम्बाई-चौडाई यूँ थी कि अपनी जवानी के दिनों में कि मजाल है कोई अनजान मोटरसाइकिल वाला भन्नाटे से सही सलामत गली से गुज़र सके। इसलिए बच्चों का लाडला था शैडो; क्योंकि गली क्रिकेट में फील्डिंग के साथ-साथ वो इस तरह के घुसपैठियों से भी सबको बचाता था।

 

एक वफादार साथी की तरह न जाने कितनी दूर तक वो अक्सर मेरे साथ चला है, एक बच्चे की तरह न जाने कितनी बार दो पैरों पर खड़े होकर गले लगा है और जाने कितनी बार किसी अनजान को मेरे दरवाज़े पर ऐंवेही फटकने से भी रोका था।

 

लोगो को अपनी भयानक आवाज़ से कँपा देने वाला शैडो हमारे झूठमूठ धमकाने पर यूँ दुबक जाता था कि बरबस हँसी आ जाती थी। जिसने उसे कुछ सालों पहले तक देखा था, वो उसे गली का कुत्ता कहने की बजागली का शेर ही कहते थे।

 

किसी एक का नहीं था, फिर भी सबका था। मौत को अपना बना वो तो अपने कष्टों से मुक्ति पा गया, पर आज भी जब मेरी ही तरह उसे इस गली के कई लोग याद करते हैं, तो ऐसे में मुझे उन लोगों पर तरस आता है, जो अपने कर्मों के कारण ऐसी याद से भी वंचित हैं, उस प्यार से वंचित हैं, जो एक गली का कुत्ता पा गया

 

शैडो के जाने के बाद उसकी विदाई में बस एक ही बात दिल में गूँजी थी- तुम बहुत याद आओगे, हमेशा याद आते रहोगे, हर उस पल में जब कोई साया साथ चलेगा।

 

वफ़ा की सीख

बेजुबान दे जाते

नेह से भरे।